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पुराणों में प्रयाग का विस्‍तार से वर्णन हैंा मत्‍स्‍य पुराण में अनेक स्‍थान पर इसका उल्‍लेख हैा प्रयाग महात्‍म्‍य में इसका विस्‍तार से उल्‍लेख आया हैा धार्मिक व पुरातात्‍विक महत्‍व का उल्‍लेख अनेक ग्रन्‍थ में आया हैा वेद की संहिता व परिशष्ठि में भी इसका उल्‍लेख हैा

वाल्मीकी रामायण में कुछ अधिक विस्तार के साथ प्रयाग का वर्णन मिलता है। उसके अयोध्याकांड के ५० से लेकर ५२ सर्ग तक में लिखा है कि जब श्रीरामचन्द्रजी को पिता से वनवास का आदेश मिला तो वह अयोध्या से चलकर श्रृंगवेरपुर (वर्तमान सिंगरौर) में गंगा के तट पर आए और उसी घाट से पार उतरकर यह वत्सदेश प्रयाग के पश्चिम के उस भूभाग को समझना चाहिए, जो गंगा और यमुना के बीच में अब ‘अंतरवेद’ अथवा ‘दोआबा कहलाता है। इसकी राजधानी ‘कौशांबी’ थी. जिसका विस्तृत वर्णन आगे किया जायगा।

इसके अनन्तर ५४वें सर्ग में लिखा है कि फिर “राम एक बड़ा वन पार करके उस देश को चले, जहाँ गंगा और यमुना का संगम है।” प्रयाग के निकट पहुँचकर उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि “हे सांमित्र! देखो यही प्रयाग है, क्योंकि यहाँ मुनियों द्वारा किए गए अग्निहोत्र का सुगंधित धुआं उठ रहा है। अब हम निश्चय गंगा और यमुना के संगम के निकट आ गए. क्योंकि दोनों नदियों के जल के मिलने का ‘कल-कल’ शब्द सुनाई पड़ता है।”
इसी प्रकार उद्योगपर्व अध्याय १४४ तथा अनुशासनपर्व अध्याय १५ में प्रयाग का उल्लेख है।

मास्य-पुराण के  अ० १०२ में लिखा है कि सूर्य की पुत्री यमुना जिस स्थान पर प्रयाग में आयी है, उसी स्थान पर साक्षात् महादेवजी की स्थिति है।
वामन पुराण के अ० ८३ में लिखा है कि यहाँ ब्रह्मा ने स्नान किया था।
वराह पुराण के अ० १३८ में लिखा है कि यह पृथ्वीमंडल के सब तीर्थों से उत्तम और तीर्थराज है। इनके अतिरिक्त मत्स्य पुराण अ० १०५-१०६. अग्निपुराण अ० १११. स्कंद पुराण, काशीखंड अ० ७, शिवपुराण खंड ८ अ० १. खंड ११ अ० १६ तथा पद्म पुराण सृष्टि-खंड १८, स्वर्गखंड अ० ५२. ५४ ६८, ८२, ८६, ८७, ९९, १००, १०१ में तथा पातालखंड के अ० १ से १०० तक में प्रयाग के स्नान और उसके अन्तर्गत विविध तीर्थस्थानों के माहात्म्य का वर्णन किया गया है।
मनुस्मृति के दूसरे अध्याय के २१वें श्लोक में इसका नाम इस प्रकार आया हैहिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये, यत्प्राग्विनशनादपि।

प्रत्यगेव प्रयागाच्च, मध्यदेशः प्रकीर्तितः ॥
अर्थात् हिमालय और विध्याचल के बीच उस स्थान से पूर्व जहाँ सरस्वती नदी बालू में लोप हो जाती है, और ‘प्रयाग’ के पश्चिम में जो देश है, उसको ‘मध्यदेश’ कहते हैं।

प्रयाग का उल्लेख तंत्र ग्रंथों में भी हुआ है। तांत्रिकों के ६४ पीठों में एक प्रयाग भी है, जिसकी देवी हैं। इनका मंदिर नगर के दक्षिण यमुना तट  में है। बंगदेशीय शाक्त इस स्थान का बड़ा महत्त्व मानते हैं और जब यहाँ आते हैं तब उक्त देवी का दर्शन अवश्य करते हैं।
कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंश के १३वें सर्ग में प्रयाग में गंगा और यमुना के संगम
का दृश्य बहुत सुंदर शब्दों में वर्णन किया है।
समयन्पुष्पक विमान पर सीता से कहते हैं “अब हम प्रयाग आ गए हैं। देखो, वह वही ‘श्याम’ नाम का वटवृक्ष है, जिसकी पूजा करके एक बार तुमने कुछ याचना की थी। यह इस समय खूब फल रहा है। चुत्रियों सहित पत्रों के ढेर की तरह चमक रहा है।”
“हे निर्दोष अंगोंवाली सीते, गंगा और यमुना के संगम का दर्शन करो। यमुना की नीली से नीली तारों से पृथक किया गया, गंगा का प्रवाह बहुत ही भला मालूम होता है। कहीं तो गंगा की धारा बड़ी प्रभा विस्तार करने वाले, बीच-बीच नीलम गुंथे हुए मोतियों के हार सदृश शोभित हैं, और बीच-बीच नीले कमल पोहे हुए सफ़ेद कमलों की लालिमा के समान, के है नहीं तो वह गंगा की धारा सरोवर के प्रेमी राजहंसों की उस पंक्ति की तरह मालूम होती है, जिसके बीच-बीच नीले पंखों वाले कदंब नामक हंस बैठे हों; और कहीं कालागुरु के बेल-बूट सहित, चंदन से लिपी हुई पृथ्वी के सदृश, मालूम होती है। कहीं तो वह छाया में छिपे हुए अंधेरे के कारण, कुछ-कुछ कालिमा दिखलाती हुई, चाँदनी के रूप में जान पड़ती है, और कही खाली जगहों से, थोड़ा-थोड़ा आकाश दिखलाती हुई, शरत्-काल की श्वेत मेघमाला के समान प्रतीत होती है नीलिमा और शुभता का ऐसा अ‌द्भुत समावेश देखकर चित आनंदित हुआ ा
पुराणों में प्रयागराज का विस्‍तार अलग अलग स्‍थानों पर अलग अलग बताया गया हैा इसे  त्रिकोण भूमि‍ और 6 तट वाला स्‍थान बताया गया है ा   इस त्रिकोण भूमि की परिक्रमा 5 कोस बतलायी गयी हैा चीनी यात्री ने इस क्षे्त्र   का विस्‍तार 2 ली बतलाया गया हैा
मत्स्य पुराण (अ० १०६ तथा १०९) में प्रयाग मंडल का विस्तार २० कोस बतलाया गया है। कूर्म पुराण (उत्तरार्द्ध, अध्याय ३६) में प्रयाग क्षेत्र का परिमाण ६ हजार धनुष है। इसी पुराण के ३४ तथा ८२ अध्यायों में प्रयाग नाम से ब्रह्मा का क्षेत्र ५ योजन में फैला हुआ लिखा है। पद्म पुराण के स्वर्ग-खंड (अ० ५७) में प्रयाग का क्षेत्र ५ योजन और ६ कोस बतलाया गया है। इसी पुराण के अध्याय ५८ में प्रयाग क्षेत्र की लम्बाई-चौड़ाई डेढ़ योजन लिखी है और उसमें ६ किनारे बताए गए हैं।

पुराणों में प्रयाग की स्थिति के विषय में इस प्रकार लिखा है-
मत्स्य पुराण के अध्याय १०४ में लिखा है कि गंगा और यमुना के मध्य में पृथ्वी की जंधा है। उसी को ‘प्रयाग’ कहते हैं, और वही तीनों लोक में प्रसिद्ध है। अग्नि पुराण के अध्याय १११ और कूर्म पुराण के अध्याय ३७ में भी इसी प्रकार प्रयाग को पृथ्वी की जंघा बतलाया गया है।
कूर्म पुराण के अध्याय ३९ में लिखा है कि प्रयाग प्रजापति का क्षेत्र है। इसी प्रकार मत्स्य पुराण के अध्याय १०८ तथा अग्नि पुराण के अध्याय १११ में इस स्थान को प्रजापति की वेदी बतलाया है। वामन-पुराण के अध्याय २२ में इतना और है कि ब्रह्मा के यज्ञ की ५ वेदियां हैं, जिनमें मध्य वेदी प्रयाग है।
वराह पुराण के अध्याय १३८ में लिखा है कि प्रयाग में त्रिकंटकेश्वर, शूलकंटक और सोमेश्वर आदि लिंग वेणीमाधव हैं। मत्स्य पुराण के अध्याय १०८ में लिखा है कि प्रयाग के कंबल और अश्वतर दो तट हैं, वहाँ भोगवती पुरी है वह प्रजापति की वेदी की रेखा है। कूर्म पुराण के अध्याय ३७ में इन दोनों तटों को यमुना का दक्षिण बतलाया है। मत्स्य पुराण के अध्याय १०५ में लिखा है कि यमुना के उत्तर तट पर प्रयाग से दक्षिण ऋणमोचन तीर्थ है। इसी अध्याय में गंगा के पूर्व और उत्तर उर्वशी रमण, हंसप्रपतन, विपुल तथा हंसपांडुर तीथों का होना बतलाया गया है। वराह-पुराण के अध्याय १३८ में भी हंसतीर्थ का नाम आया है। मत्स्य पुराण के अध्याय ३० और ३१ में गंगा के पूर्व समुद्रकूप का वर्ण है। पद्म पुराण के अ० २३ और २५ में अक्षयवट की चर्चा आयी है, और लिखा है कि उसके पत्तों पर विष्णु भगवान् सोते हैं। मत्स्य-पुराण के अ० १०४ में भी अक्षयवट तथा अग्नि पुराण के अ० १११ में अक्षयवट, वासुकी और हंसी का उल्लेख है।